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Saturday 4 October 2014

doosra chehra

आज मैं खुद से खफा सा हूँ
एक पल के लिए रुक सा हूँ
पीछे मुड़ कर देखना चाहता हूँ
आज मैं थम कर सोचना चाहता हूँ
वो सब जो मैंने पीछे छोड़ दिया
खुद को एक नयी राह पर मोड़ दिया
चलते चलते शायद मैं आगे निकल गया हूँ
जो सपने गढ़े थे शायद उनसे फिसल गया हूँ
जब मैंने नजर उठाई
आँखों में तैर गई सच्चाई
खुद में मैंने खुद को ना पाया
नजर आया एक अजनबी का साया
कौतूहलवश मैंने पुछा,कौन हो तुम?मैं तुम्हे पहचान नहीं पाया
तुमसे जन्मा,तुम्हारी ही रचना हूँ मैं ,ये उत्तर आया
मेरी दुविधा देख कर वो मुस्काया
पूछा ,जानना चाहते हो मैं कैसे आया
मैंने उस दिन जन्म पाया
जिस दिन तुम्हारे अंदर स्वार्थ आया
जब तुम्हारे अंदर अहंकार जना
उस दिन मैंने किशोर बना
जब-जब तुमने अपने सपनो का किया तिरस्कार
तब-तब मेरा बढ़ता गया आकार
मेरा आवरण,मेरा व्यवहार,सब मैंने तुमसे है पाया
मेरी सोच ,मेरे कर्म,और मेरी काया
क्रोधित होकर मैं चिल्लाया
मैं श्रेष्ठ हूँ ,मैंने सब कुछ है पाया
मैं समाज में स्वीकृत हूँ,मेरे पास है किताबी शिक्षा
मैं आज वो हूँ जो बनने की थी मेरी इच्छा
क्या समाज में स्वीकृति ही तुम्हारा ख्वाब है
जो आज तुम हो वो मात्र एक नकाब है
नकाब जो तुमने ओढ़ा ताकि तुम्हारी रफ़्तार कम ना हो
अपने ही सपनों को मरते देखने का गम न हो
जिस समाज में स्वीकृति को आज तुम अपना उद्देश्य मानते हो
एक वक़्त उसी के रूढ़िवाद के तुम विरुद्ध थे,क्या तुम ये जानते हो?
तुम्हारे अंदर आज भी जीवित हैं वो निशान
उस वक़्त के जब तुम बनना चाहते थे एक अच्छा इंसान
ग्लानि के मारे मैं आगे बढ़ गया
आज मैं अपनी ही नजरों में गिर गया
पर मैं इस 'सभ्य' समाज का 'सभ्य' आदमी हूँ
मैंने सच्चाई से जल्दी ही मुह मोड़ लिया
खुद को देख ना सकूँ इसलिए दुबारा नकाब ओढ़ लिया
अनुराग श्रीवास्तव

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