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Saturday 17 March 2012

वक़्त का सफ़र (हिंदी काव्य में मेरा प्रथम पदचिन्ह )

अंतहीन इंतज़ार
आज फिर शाम ढलते ही एक अजब सी कसक दिल में उठी लगा शायद रात की खुमारी अभी उतरी नहीं
आँखों में अब भी एक अनजाना सा नशा था ख्वाब कुछ कम नहीं थे

उन परिंदों के साथ ही मैं भी अपना ठिकाना ढूंढ लेना चाहता था पर वक़्त कम था निशा के गहराने के साथ ही मन पर बेचैनी छा रही थी
बेचैनी जिसका अपना खुद वजूद नहीं था आज वो मुझपर हावी हो रही थी

ना जाने क्यों एक अ...नजाना सा तीर चुभा लगा की शायद मैं उसे खो दूंगा
ऐसा पूर्व तो कभी नहीं हुआ , फिर सोचा क्या मैंने ये शैय्या स्वयं नहीं बिछाई

मैं तो खुद शोर से भागना चाहता था और आज ख़ामोशी ने मेरे अंतर्द्वंद में उथल पुथल मचा दी थी
ये कैसी कशमकश थी जिसके साथ रहने पर कभी उसके वजूद की अहमियत ना समझी आज उससे दूरी मेरे नैन सह ना पा रहे थे

आज फिर एहसास हुआ की माँ से दूर हूँ लगा कि पास होता तो मेरे सारे आंसू वो अपने आँचल में समेट लेती
लगा कि ये ज़िन्दगी का कारवां है जिसमे चलते जाना ही शायद ज़िन्दगी है

ये वक़्त का सफ़र है लम्बा होगा
पर शायद अंतहीन नहीं

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