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Saturday 4 October 2014

Ardor

Glow was adamant
Proud of its beauty
Spanning its wings
Swallowing the dark stretches
In the darkness
Thrived a dream
To reach the zenith
And, fuse with the ‘magnificent ’ gleam
And , a dreamer
Fascinated by her pseudo elegance
Secretly hoping for one day
To perch his stance
Stark fool,naive
Were, one of few names
Others called him
When told about what he aims
Steadfast,he walked
On his journey to top
Abandoning his current self
For a meatier shop
Images of once desired
Flared up in his head
And the past dedicated
For the path he once tread
Trying to be unfazed
Decided to keep moving
Towards the ‘big’ dream
Sacrificing the old sowing
When in vicinity
He kissed the glow
Trying to absorb the beauty, stared at her
Incessantly with straight bow
And then the wind blown
With all its might
Slashing the now ‘small ‘ glow
Of the candle light
Suddenly he wanted to go back
To his world of ‘star’
To the old sowing
But too tired to move, perhaps he came too far
Enchanted by the glow
Insect rested on fire
Oblivious of its fate
Burned in furious glow of desire

the oblivion...

The grayness of my thoughts, the oblivion
My transit to an alighted state, I wander for a reason
Dodging the cuffs of ‘pompous’ reality
I dissolve my existence into the ‘serene’ lie

Away from the repelling scars of judging eyes
In my revolting thought my solace lies
A thought so small, yet so adamant
To triumph the shackles of this ‘regular’ world, walk beyond its hateful rant
Their monotonous prejudice ,dead but walking
So same , the air reeks of stagnancy in the ghetto locking
I walk free, free from slavery of ‘ sane’s ’
We still together, can walk, in those lanes
Beyond the physical boundaries, I will meet you in my dream
Eternal, forever, no brow creaking when we gleam
We will bloom together in an idea of a child
Eternal, forever young, free and wild.

doosra chehra

आज मैं खुद से खफा सा हूँ
एक पल के लिए रुक सा हूँ
पीछे मुड़ कर देखना चाहता हूँ
आज मैं थम कर सोचना चाहता हूँ
वो सब जो मैंने पीछे छोड़ दिया
खुद को एक नयी राह पर मोड़ दिया
चलते चलते शायद मैं आगे निकल गया हूँ
जो सपने गढ़े थे शायद उनसे फिसल गया हूँ
जब मैंने नजर उठाई
आँखों में तैर गई सच्चाई
खुद में मैंने खुद को ना पाया
नजर आया एक अजनबी का साया
कौतूहलवश मैंने पुछा,कौन हो तुम?मैं तुम्हे पहचान नहीं पाया
तुमसे जन्मा,तुम्हारी ही रचना हूँ मैं ,ये उत्तर आया
मेरी दुविधा देख कर वो मुस्काया
पूछा ,जानना चाहते हो मैं कैसे आया
मैंने उस दिन जन्म पाया
जिस दिन तुम्हारे अंदर स्वार्थ आया
जब तुम्हारे अंदर अहंकार जना
उस दिन मैंने किशोर बना
जब-जब तुमने अपने सपनो का किया तिरस्कार
तब-तब मेरा बढ़ता गया आकार
मेरा आवरण,मेरा व्यवहार,सब मैंने तुमसे है पाया
मेरी सोच ,मेरे कर्म,और मेरी काया
क्रोधित होकर मैं चिल्लाया
मैं श्रेष्ठ हूँ ,मैंने सब कुछ है पाया
मैं समाज में स्वीकृत हूँ,मेरे पास है किताबी शिक्षा
मैं आज वो हूँ जो बनने की थी मेरी इच्छा
क्या समाज में स्वीकृति ही तुम्हारा ख्वाब है
जो आज तुम हो वो मात्र एक नकाब है
नकाब जो तुमने ओढ़ा ताकि तुम्हारी रफ़्तार कम ना हो
अपने ही सपनों को मरते देखने का गम न हो
जिस समाज में स्वीकृति को आज तुम अपना उद्देश्य मानते हो
एक वक़्त उसी के रूढ़िवाद के तुम विरुद्ध थे,क्या तुम ये जानते हो?
तुम्हारे अंदर आज भी जीवित हैं वो निशान
उस वक़्त के जब तुम बनना चाहते थे एक अच्छा इंसान
ग्लानि के मारे मैं आगे बढ़ गया
आज मैं अपनी ही नजरों में गिर गया
पर मैं इस 'सभ्य' समाज का 'सभ्य' आदमी हूँ
मैंने सच्चाई से जल्दी ही मुह मोड़ लिया
खुद को देख ना सकूँ इसलिए दुबारा नकाब ओढ़ लिया
अनुराग श्रीवास्तव